नैतिकता का सुख | JOY OF ETHICS IN HINDI PDF DOWNLOAD

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PDF Nameनैतिकता का सुख / JOY OF ETHICS IN HINDI
File Type:PDF
Genresप्रेरक / Motivational, non-fictionSelf Help
Total Pages:180
AuthorDALAI LAMA
Languageहिंदी
PDF Size:2.35 MB

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किताब का कुछ अंश:

अध्याय १ – आधुनिक समाज एवं मनुष्य की खुशी की

अन्य लोगों की तुलना में मैं आधुनिक समाज का नवागंतुक हूँ। यद्यपि मैं अपनी मातृभूमि को एक लंबे समय पूर्व 1959 में छोड़ चुका हूँ, और यद्यपि भारत में एक शरणार्थी की अवस्था मुझे वर्तमान समाज के काफी पास लायी है। अपने जीवन के आरम्भ के वर्षों में मैं बीसवीं शताब्दी के यथार्थ से अलग थलग ही रहा। कुछ हद तक इसकी वजह रही है मेरी_दलाई लामा के रूप में नियुक्ति । मैं बहुत छोटी उम्र में भिक्षु बन गया था। इस से यह भी दिखता है कि हम तिब्बत के लोगों को अपने देश को बाकी दुनिया से अलग-थलग पहाड़ों की ऊँची श्रृंखलाओं के पीछे रखने का निर्णय मेरी दृष्टि में गलत था।
[1]
किन्तु आज के दिन मैं काफी यात्रा करता हूँ और मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मैं लगातार नये लोगों से मिलता रहता हूँ। इसके अतिरिक्त यह भी है कि जीवन के अनेक क्षेत्रों के लोग मुझसे मिलने आते हैं। बहुत से लोग बहुत कष्ट उठाकर, कुछ ढूंढते हुए, धर्मशाला आते हैं जो एक पर्वतीय पर्यटन स्थल है और प्रवास की अवधि में मेरा निवास स्थल है। इन लोगों में ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्होंने बड़े कष्ट सहे हैं, कुछ लोगों के माता पिता का देहांत हो चुका होता है; कुछ के परिवार के सदस्य अथवा मित्रों ने आत्महत्या की होती है; कुछ कैंसर अथवा एड्स जैसी बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। इसके अलावा, स्वभावतः मेरे साथी तिब्बत के लोग होते हैं जिनकी कठिनाइयाँ एवं परेशानियों की अपनी एक दास्ताँ होती है। दुर्भाग्य से, कई लोगों की यह अवास्तविक अपेक्षा होती है कि मेरे पास कुछ अद्भुत शक्ति है या मैं कुछ वरदान दे सकता हूँ। लेकिन मैं सिर्फ एक साधारण मनुष्य हूँ। मैं ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता हूँ कि मैं उनके दुःख में हिस्सा ले उनकी मदद करने का प्रयत्न कर सकूँ।

Kitab Ka Kuch Ansh:

Adhyay 1 – Aadunik samaj evam manushya ki khushi ki

Any logon ki tulna mein main aadunik samaj ka navaagntuk hoon. Yadyapi main apni matrubhoomi ko ek lambe samay poorv 1959 mein chhod chuka hoon, aur yadyapi Bharat mein ek sharanarthi ki avastha mujhe vartaman samaj ke kaafi paas laayi hai. Apne jeevan ke aarambh ke varshon mein main beesvi shatabdi ke yatharth se alag thalag hi raha. Kuch had tak iski vajah rahi hai meri Dalai Lama ke roop mein niyukti. Main bahut chhoti umra mein bhikshu ban gaya tha. Isse yah bhi dikhata hai ki ham Tibet ke logon ko apne desh ko baaki duniya se alag-thalag pahaadon ki unchi shrenkhalon ke peeche rakhne ka nirnay meri drishti mein galat tha.

Kintu aaj ke din main kaafi yaatra karta hoon aur main ise apna saubhagya samajhta hoon ki main lagaatar naye logon se milta rahata hoon. Iske atirikt yah bhi hai ki jeevan ke anek kshetron ke log mujhse milne aate hain. Bahut se log bahut kast uthaakar, kuch dhoondhate hue, Dharamshala aate hain jo ek parvatiya parayatan sthal hai aur pravaas ki avadhi mein mera nivaas sthal hai. In logon mein aise vyakti bhi hote hain jinhone bade kast sahe hain, kuch logon ke mata pita ka dehaant ho chuka hota hai; kuch ke parivaar ke sadasya athava mitron ne atmahatya ki hoti hai; kuch cancer athava AIDS jaise bimaariyon se grast hote hain. Iske alava, swabhavatah mere saathi Tibet ke log hote hain jinki kathinaayiyan evam pareshaniyon ki apni ek daastaan hoti hai. Durbhagya se, kai logon ki yah avastavik apeksha hoti hai ki mere paas kuch adbhut shakti hai ya main kuch varadan de sakta hoon. Lekin main sirf ek sadharan manushya hoon. Main zyada se zyada yah kar sakta hoon ki main unke dukh mein hissa le unki madad karne ka prayatn kar sakoon.

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