शेखर एक जीवनी उपन्यास का सारांश और समीक्षा

शेखर एक जीवनी उपन्यास का भाग 1

“शेखर एक जीवनी” सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन (Sachchidananda Hirananda Vatsyayan) “अज्ञेय” जी के द्वारा लिखा गया मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास है। यह फ्लैशबैक पद्धति में लिखा गया है। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन सन् 1941 ई. में तथा दूसरे भाग का प्रकाशन सन् 1944 ई. में किया गया था। 

इस उपन्यास में शेखर के जीवन की कथा है।  इस उपन्यास के दो भाग हैं जिसमें शेखर के बचपन से लेकर फांसी के तख्ते पर आने तक की समस्त घटनाओं का वर्णन किया गया है।

कथा की दृष्टि से द्वितीय भाग अति सशक्त है जिसमें शेखर की किशोरावस्था की घटनाओं का वर्णन मिलता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि प्रथम भाग निरर्थक है। शेखर के जीवन का निर्माण किन तत्वों के आधार पर हुआ, वह क्या था, वह क्या बनना चाहता था आदि प्रश्नों का उत्तर प्रथम भाग में मिलता है। ‘शेखर एक जीवनी’ उपन्यास की शुरुआत में ही शेखर से प्रथम भेंट जेल में होती है। जहां वह फांसी लगने का इंतजार कर रहा होता है। इस एक क्षण में वह अपने अतीत के जीवन को फिर से जीना चाहता है। वह एक ही क्षण में जिंदगी के पन्ने उलटता है और वही से उपन्यास का आरंभ होता है।

कथा के प्रारंभ में शेखर के शैशव का चित्रण मिलता है। जहां उसके माता-पिता, भाई आदि की कथा बताई गई है। प्रथम भाग के अंतर्गत शेखर का ईश्वर के प्रति अनास्था, डरावनी चीज़ों को देखकर घबराना, लेटरबाक्स पर से कूदकर डाकिए का पैर कुचलना, ईश्वर के अस्तित्व के प्रति परिवार से पूछताछ, मां के प्रति घृणा आदि बातों का वर्णन मिलता है। शेखर के बचपन की एक घटना जिसमें वह ईश्वर के प्रति अनासक्त हो जाता है । एक बार देवी के पुजारी को सांप काटने पर ‘जयदेवी माता’ चिल्लाता पुजारी मंदिर में जाता है और वहां उसकी मृत्यु हो जाती है। शेखर सोचता है कि देवी का नाम लेने पर भी देवी ने उसकी जान नहीं बचाई और वह तब से ईश्वर के प्रति अनासक्त हो जाता है।

दूसरी घटना है कि जब अजायबघर में चर्म के व्याघ्र को देखकर उसको बुखार आ जाता है।

तीसरी घटना है कि वह लेटरबाक्स पर चढ़कर अपनी बहन सरस्वती के ख़त का इंतजार करता है और डाकिए के मना करने पर उसका पैर कुचल देता है।

इसके अतिरिक्त आम के पेड़ पर चढ़ना तथा माली के रोकने पर सारे आम गिरा देना आदि ये सब घटनाएं प्रथम भाग के उपन्यास में आती है।

शेखर की मां का वर्णन भी इसी भाग में आता है। वह शेखर को बार-बार डांटती है इसलिए शेखर का मन स्वतंत्रता चाहने लगता है। मां के दुर्व्यवहार, ईश्वर के प्रति अनास्था बताने पर घरवालों का नास्तिक कहकर बुलाना आदि के कारण शेखर घर छोड़कर चला जाता है। शेखर को लगता है कि बड़ों को सब अधिकार प्राप्त हैं। उसे कोई नहीं समझता, उसकी बात का कोई उत्तर नहीं देता है। वह आकाश में उड़ते पक्षियों की स्वतंत्रता के बारे में प्रश्न करता है। बाद में वह प्रकृति प्रेमी बन जाता है।

उपन्यास के प्रथम भाग में शेखर के जीवन की लगभग 17 वर्षों की कहानी है।

शेखर एक जीवनी उपन्यास का भाग 2

उपन्यास के दूसरे भाग में शेखर के प्रकृति प्रेमी बनने के बाद उसके स्वाभिमान को संतोष देने वाली प्रवृतियां जैसे चुगलखोरी कर घरवालों के सामने अपना महत्व बढाना, समाज सुधारक बनना, घरवालों से दूर स्वतंत्रता मनाना, लेखक, कवि बनना, चोरी करना आदि का विवरण मिलता है। शेखर के प्रेमी रुप तथा विद्रोही रुप का चित्रण उपन्यास के दूसरे भाग में ही मिलता है।

दूसरे भाग में मैट्रिक की परीक्षा देने के दो वर्ष पश्चात शेखर दूसरी परीक्षा देने पंजाब जाता है, वहां से इसकी कथा आरंभ होती है। इसके अंतर्गत वहां के छात्रावास, वहां के लड़कों के साथ शेखर की एकात्म स्थापित करने की चेष्टा, अंग्रेजी भाषा तथा कपड़े आदि बातों से शेखर के अस्तित्व को आत्मसम्मान का परिचय मिलता है।

इसके बाद लाहौर में बी. ए. में पढ़ते वक्त शेखर कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेता है। उसको यहां एक दल का दलपति बनाया जाता है। इसी भावावेश में एक दिन अनुशासन के लिए पिसते हुए शेखर ने घोर अपराध कर दिया। उसने अनुशासन भंग करने वाले तीन सेवर्कों को दल से बाहर निकाल दिया। इस कार्य से असंतुष्ट होकर कुछ लोगों ने अध्यक्ष से अपील कर दी और उसे अध्यक्ष के द्वारा अपमान के शब्द सुनने पड़ते हैं।

इसके बाद शेखर पहला देने वाले को देखने निकलता है। उस समय ड्यूटी पर कोई नहीं होता है। शेखर उसकी जगह पर ड्यूटी देने लगता है। अगली बदली वाले स्वयं सेवक के न आने पर चल देता है। तभी दो सिपाही उसे पकड़ लेते हैं। उसे दस महीने जेल में रहना पड़ता है। जेल में वह अनेक प्रकार के अनुभवों से गुजरता है। जेल में उसे स्वाधीनता मुक्ति का सही अर्थ समझ आता है।

जेल में शेखर की मुलाकात बाबा मदनसिंह से होती है जिनका एक संवाद “मनुष्य को अपना मार्ग स्वंय निश्चित करना चाहिए” शेखर को प्रभावित करता है। जब शेखर जेल से छूटता है तो उसमें आत्मनिर्भरता की भावना प्रबल हो उठती है। शेखर जब जेल से बाहर निकलता है तो उसके अंदर तीव्र पीड़ा बोध, गहरा संतोष और अनुभव का भाव होता है तब वह संकल्प करता है कि वह क्रांति करेगा। शेखर का यही क्रांतिकारी रुप उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचा देता है। ‘शेखर एक जीवनी’ के द्वितीय भाग में उसका प्रेमीरूप अधिक प्रभावशाली है। शशि, सरस्वती, शारदा, शांति आदि पात्रों के माध्यम से उसका प्रेम दिखाई पड़ता है।

शशि और शेखर का प्रेम हिंदी उपन्यास में विशिष्ट स्थान रखता है। शेखर जब जेल जाता है तो शशि उससे मिलने जाती है। वह शेखर से कुछ कहना चाहती है परंतु कह नहीं पाती। इसके बाद शेखर को शशि का पत्र मिलता है तब उसे पता चलता है कि शशि का विवाह अन्य व्यक्ति के साथ हो रहा है। वह सोचता है कि बाहर रहता तो शशि के लिए लड़ता, बहस करता । वह उसे खोना नहीं चाहता था परन्तु कुछ नहीं कर पाता और शशि का विवाह दूसरे व्यक्ति से हो जाता है। जेल से छूटने के बाद शेखर शशि से मिलने जाता है तब शशि उसे लिखने की प्रेरणा देती है।

शेखर “हमारा समाज” नाम से पुस्तक लिखता है परंतु प्रकाशक उसका मज़ाक उड़ाते हैं तो वह तिलमिला उठता है। इस परिस्थिति में वह कर्तव्य विमुख हो जाता है और आत्महत्या करने का इरादा करता है परंतु एक लड़की उसे बचा लेती है। वह निराश होकर शशि के पास जाता है। शेखर उसे आत्महत्या की बात बताता है तब शशि उसे सांत्वना देती है। शशि का पति शशि को घर से निकाल देता है। तब वह शेखर के साथ रहने लगती है।

शेखर बचपन से जो पाना चाहता था शशि के रूप में उसने वह सब पा लिया।

शशि का स्वास्थ्य धीरे धीरे गिरने लगता है और अंत में उसकी मृत्यु हो जाती है। शेखर उसका साथ अंत तक देता है। शेखर क्रांतिकारी उपन्यास लिखने लगता है जिससे उसका जेल जाना भी तय हो जाता है

कथा वस्तु से पता चलता है कि शेखर जब स्वयं राह खोजने निकल पड़ता है। तो उसे जहां राह मिलती है वह उसकी खोज में समाविष्ट नहीं होता। उसके सच्चे और निर्दोष जीवन की एकमात्र मंजिल थी – फांसी??

‘शेखर एक जीवनी’ उपन्यास में न केवल कथा नायक शेखर की जीवनी है। बल्कि स्नेह और वेदना का जीवन दर्शन भी है जिसे लेखक ने अपने जीवनानुभवों के सूत्रों में पिरोया है।

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